अकरकरा

(Anacyclus pyrethrum)

विशेष वक्तव्य

यद्यपि आयुर्वेद के चरक सुश्रुत आदि प्राचीन ग्रंथों में इस बूटी का उल्लेख नहीं है, तथापि यह नहीं मन जा सकता की यह बूटी भारतवर्ष में पहले नहीं होती थी और पीछे से यूनान वालों के द्वारा इसे यहाँ लाया गया। इसकी अपेक्षा उत्तमोत्तम कई अन्य बूटियाँ यहाँ थीं जिनके सामने यह कोई चीज नहीं थी शायद इस कारण से चरक, सुश्रुत आदि महर्षियों ने इसकी उपेक्षा की हो अथवा इसके प्राचीन और आधुनिक नामों में कुछ गड़बड़ी हो गई हो।

अनेक भाषा के नाम

लेटिन- एनासाइक्लर्स पाइरेथ्रम

संस्कृत- आकारकरभ, अकल्लक, आकरकरा, तीक्ष्णमूल, लक्ष्णकीलकादि

हिंदी- अकरकरा, अकलकरहा

अंग्रेजी- पेलिटरी रुट

मराठी- आक्कलकाला, अक्कलकारा

गुजरती- अक्कलकरो

तमिल- अक्किरकारम्

उत्पत्ति स्थान

असली अकरकरा, जिसे एनासाइक्लस पाइरेथ्रम या अफ़्रीकी पाइरेथ्रम के नाम से भी जाना जाता है, एक बारहमासी जड़ी बूटी है जो कैमोमाइल के समान दिखती है मूल रूप से अफ्रीका में पाई जाती है तथा अरब, अल्जीरिया, लिवांत आदि प्रदेशों में होता है तथा बहुत ही काम प्रमाण में बंगाल के कुछ हिस्सों में, हिमालय क्षेत्र में , आबू के पर्वतीय प्रदेशों में तथा गुजरात महाराष्ट्र आदि भारतवर्ष के कतिपय प्रांतों की उपजाऊ में पाया जाता है ।

नोट- भारतवर्ष में पाई जाने वाली यह वन औषधि प्राय दो प्रकार की होती है एक तो वह जिसे भोजी दाना या मधुर छोटा अकरकरा लैटिन में Spilanthus Acmella कहते हैं और दूसरी को बड़ा अकरकरा पोकर मूल तथा मराठी भाषा में अचार वोंडी या पीपुलक गुजराती में मराठी लैटिन में Spilanthus Oleraceae कहते हैं।

इसका स्वाद तीखा होता है और जड़ें थोड़ी सुगंधित होती हैं जो भूरे रंग की और काले धब्बों के साथ झुर्रीदार होती हैं। अकरकरा एक छोटा, तना रहित, बालों वाला पौधा है जो लगभग 3-4 फीट तक लंबा हो सकता है। इसमें नीचे की ओर शाखाओं वाले कई तने होते हैं जो जमीन पर पड़े होते हैं और सिरों की ओर सीधे उभरे होते हैं। यह प्रायः एक हाथ ऊंचे होते हैं पत्ते कुछ लंबे तथा पुष्प कुछ सफेदी लिए पीठ लाल वर्णन के घुंडीदार होते हैं इनके पुष्प ही में असली अकरकरा मूल के प्रायः गुणधर्म पाए जाते हैं अतः प्रायः पुष्प ही औषधिकार में लिए जाते हैं असली अकरकरा के अभाव में इसे ही कार्य लिया जाता है इनके पुष्पों का टिंक्चर या आसव अग्निदीपक, लालस्त्रावक, जिव्हा और दांत विकार नाशक तथा शुल शोथ आदि विकार नाशक है ।

विवरण

इसके छोटे-छोटे क्षुप वर्षा ऋतु के आरंभ काल में ही उत्पन्न हो जाते हैं शाखाएं पत्र और पुष्प सफेद बाबूना के समान ही होते हैं, किंतु उनके डंठल कुछ पोले होते हैं तना और शाखाएं रूएदार रहते है, यह शाखाएं एक तने या डाली में से निकालकर कई हो जाती हैं तथा जड़ में एक प्रकार की सुगंध होती है । मूल 2 इंच से 4 इंच तक लंबी और आधे से पौने इंच तक मोटी व वजनदार होती है, डाली ऊपर को उठी हुई तथा पुष्प पटल(Petals) श्वेत वर्ण के होते हैं, मूल की छाल मोटी भूरी और झुर्रीदार होती है । अन्य वनस्पतियों का गुणधर्म तो एक वर्ष में नष्ट हो जाता है किंतु असली अकरकरा का मूल गुणधर्म ७ वर्षों तक प्रायः जैसा का तैसा रहता है इसको मुख में चबा लेने पर अन्य कटु, तिक्त आदि औषधीय का कुछ भी स्वाद मालूम नहीं होता है वह सरलता पूर्वक सेवन की जा सकती हैं इसकी डाल के ऊपर गुच्छेदार छतरी के आकार का किंतु बाबूना से विपरीत सफेदी लिए हुए पीत वर्ण का पुष्प होता है।

भारतवर्ष में जो अकरकरा के उपयुक्त भेद पाए जाते हैं वे ऊंचाई में दो से चार फीट तक होते हैं । तना और शाखाएं सामान्यत: रुऍदार होती हैं। कई शाखाएं भूमि पर फैली हुई होती है, पत्र पतले कऺगूरेदार विषम वर्ति 1 से 2 इंच तक लंबे तथा तीन नसों वाले होते हैं। फूलों की घुंडियां सुंदर पीले रंग की और लगभग आधा इंच व्यास की होती है यह फूलों की घुंडियां आश्विन मास से लेकर माघ फाल्गुन तक प्राप्त होती हैं इन्हें खाने से मुख में बहुत तेज विचित्र ढंग की चिरमिराहट होती है इनकी जड़ों में सुगंध नहीं आती यह असली अकरकरा की अपेक्षा कुछ गुण वाली होती हैं, बाजारों में यह सब असली अकरकरा के साथ मिलाकर बेचते हैं।

असली और नकली अकरकरा के भेद- असली अकरकरा भारी (वजनदार) और तोड़ने पर भीतर से सफेद होती है इसमें अत्यधिक तेजी होती है इसको चबाने से मुख और जीभ में बहुत तेज एक विचित्र ढंग की सनसनाहट होने लगती है तथा मुंह से मीठी-मीठी लार छुटने लगती है कुछ काल के बाद सनसनाहट मिटकर मुंह स्वस्थ और साफ हो जाता है अर्थात इसका प्रभाव देर तक रहता है।

नकली अकरकरा वजन में हल्की तोड़ने पर अंदर कुछ पीला या भूरापन लिए होती हैं इसकी झनझनाहट काम और थोड़ी देर तक होती है।

रासायनिक विश्लेषण

रासायनिक विश्लेषण से मालूम हुआ है कि इसमें स्फटिक के समान अल्कलाइड़ पायरेथ्रिन Alkaloid Pyrethrine) नामक एक क्षारीय सत्व होता है, तथा (२) रेजिन या राल सदृश एक सत्व होता है, जो कि मद्य मैं विलयनशील होता है, और (३) दो प्रकार के स्थायी `एवं उड़नशील पीले रंग के सुगन्धित तैल होते हैं। ये संब वस्तुएँ प्रदाहजनकं, लार निस्सारक, मज्जातन्तुओं को बलंदायक, कामोत्तेजक और वातनाशक हैं।

Bio-active N-alkylamides: Found in the aerial parts, Sterols: Found in the plant, Trace metals: Found in the plant, Phenols: Found in the plant, Ester pyrethrine: Found in the roots, N-alkylamides (pellitorine): Found in the roots, Palmitic acid: 13.39%, Naphthalene, decahydro-1,1-dimethyl-(10.86%): 10.86%, 9&12-Octa decadienoic acid (Z,Z)-(10.10%): 10.10%, Sarcosine , N-(trifluoroacetyl)-butyl ester, Levulinic acid, Malonic acid, Morphinan-6-One, 4,5.alpha.-epoxy-3-hydroxy-17-methyl, 2,4-undecadiene-8,10-diyne-N-tyramide, Isovaleric acid

गुणधर्म

तिक्त, स्वाद, कंषैला, किचित् कटु, उष्णवीयं, तीक्ष्ण, बलकारक, प्रतिश्याय (जुखाम), शोथ और वातनीशकं है तथा वेदनास्थापक, लालोत्पादक एवं कफघ्न गुण की विशे- पता है। इसमें उत्तेजक गुण काफी प्रमाण में होने से आयुर्वेद ने इसे कामोत्तेजक औषधियों में प्रधानता दी है। इसे समान गुणशील अन्यांन्य औषधियों के साग प्रयोजित करने से यह वीर्यवर्धन, स्तम्भन एवं कामोत्तेजन में अद्भुत लाभ पहुँचाती है। किन्तु इसका विशेष लाभ शीत या कफ प्रकृति वालों को ही होता है।

आयुर्वेद में इसका उपयोग लगभग ५०० वर्षों से हो रहा है। सड़े हुए दाँतों की वेदना निवारणार्थ इसका उत्तरा उपयोग होता है। जिह्वा और कष्ठ के आघात में आवाजः खुलने और मुंह में गीलापन होकर शिथिलता कम होने के लिये इसे मुख में धारण कराते हैं।

मुख्य प्रयोग

कामोत्तेजनार्थ, वीर्यवर्धनायं -

अकरकरा २ भाग, असगंध (नागौरी), तुलसी के बीज और करंज मूल त्वक १-१ भाग लेकर सबका महीन चूर्ण करें ।

मात्रा - १-३ माशे तक प्रातः सायं मिश्री युक्त धारोष्ण गौ दुग्ध अथवा पकाए हुए सुखोष्ण दुग्ध के साथ सेवन करने से वीर्य वर्धन और स्तम्भन होता है ।

भैषज्य रत्नावली की "आकरकरभादि वटी" को योग (जिसमें अकरकरा, सौंठ, लौंग, केशर, पिप्पली, जायफल, जावित्री और चन्दन १-१ भाग, शुद्ध हिंगुल और गंधक ¼ भांग तथा अफीम ४ भाग हैं, सबको एकत्र कर भांग के स्वरस (या क्काथ) की भावना देकर गोलियां बनाते हैं। मात्रा २ से ६ यव की है। नपुंसकता, ग्रहणी, अतिपार्श्वशूल पर उत्तम है।

नोट- कोई कोई इसमें लौंग के स्थान में शीतल मिरच, अफीम ४ भाग के स्थान में ½ भाग लेते हैं। हिंगुल और - गंधक नहीं लेते, तथा भाँग के स्थान में पान (ताम्बुल) के रस में ६ घण्टे खरल कर २-२ रत्ती की गोलियां बनाते हैं। इसकी १ या २ गोलियाँ रात्रि के समय मिश्री मिले दूध के साथ सेवन करने से काफी कामोत्तेजना, वीर्य गाढ़ा तथा मानसिक प्रसन्नता होती है। ध्यान रहे इन अफीम युक्त प्रयोगों का सेवन अधिक दिनों तक नहीं करना चाहिए अन्यथा लाभ के स्थान में हानि की संभावना है। यदि कोष्ठबद्ध हो जाय तो एरण्ड तैल द्वारा उदर से शुद्धि कर लें ।

शिश्न पर बाह्य प्रयोग -

अकरकरा का महीन चूर्ण लगभग २ तोले प्रति रात्रि को धतूरे के स्वरस में घोटकर टिकिया बना शिश्न की ऊपर की सतह पर, प्रभाग छोड़ कर बाँधने से, ७ या ८ दिनों में वह पुष्ट होकर स्तम्भन शक्ति बढ़ती है, तथा नपुंसकता दूर होती है। उक्त अकरकरा की लुगदी पर पत्ता भी धतूरे का ही बाँधना चाहिए, और जल से शिश्न को बचाना चाहिए ।

अथवा-

अकरकरा ५ तोला को जवकुट कर १६ गुने ज़ल के साथ चतुर्थांश क्वाथ सिद्ध कर, उसमें क्वाथ जल से आधा मालकांगनी का तेल मिला, मन्दाग्नि पर पकावें । तेल मात्र शेष रहने पर शीशी में सुरक्षित रक्खें । इसकी शिश्न पर मालिश करने से उसकी शिथिलता, जो नस का खराबी से हुई है अवश्य दूर हो जाती है ।

अकरकरा के महीन चूर्ण को शहद के साथ लेप करने भी इन्द्रिय-शैथिल्य दूर हो जाता है।

अथवा-

अकरकरा, पिप्पली, चित्रकमूल की छाल, और धतूरे - बीज ७-७ माशे, इन्द्रगोप (वीरबहूटी), जुन्दवेदस्तर २-२ माशे, जायफल, दालचीनी १-१ माशे, श्वेत कन्नेर की छाल, सौठ १-१ माशा और केशर ४ रत्ती, सबका महीन चूर्ण कर शहद के साथ घोटकर १ गोली, या कई गोलियां बना रक्खे । इसे मद्य या खराब में घिसकर शिश्न पर लेप करने से बाजीकरण एवं वीर्य स्तम्भन होता है ।

नोट-उक्त बाह्य प्रयोगों के साथ ही साथ उक्त आकरकरभादि चूर्ण या वटी का सेवन अवश्य होना चाहिए, और पथ्य परहेज से रहना चाहिए ।

बाल रोग और जिह्वा विकार आदि पर -

(अ) अकरकरा ४ भाग, जायफल ३ भोग, लौग, पीपलामूल और केसर २-२ भाग, दालचीती ३० भागा अफीम १ भाग, भाँग और मुलेठी ४-४ भाग, आक की जड़ की छाल ५ भाग, बायब्रिडङ्ग ३ भाग और शंहद ५ भाग, सबके चूर्ण को शहद के साथ तथा थोड़ा जल मिलाकर खूब घोटना चाहिए और छोटी छोटी गोलियाँ बना रक्खें । मात्रा- अर्ध रत्ती से २ रत्ती तक सेवन कराने से बच्चों का चिड़चिड़ापन, अनिद्रा, दाँत निकलने के समय की पीड़ा, अतिसार, उदरशूल, वमन आदि विकार शीघ्र दूर होते हैं।

अथवा –

(आ) अकरकरा २ भाग तथा इन्द्रयव (मीठा), सौंठ, जीरा और पीली कौड़ी की भस्म १-१ भाग लेकर सबका महीन चूर्ण एकत्र कर शीशी में भर कर रक्खें । मांत्रा, बच्चों को ४ रत्ती से १ माशा तक और बड़ों को. २ माशे ४ माशे तक, दिन में २ या ३ बार योग्य अनुपान के या केवल उष्णोदक के साथ देने से यकृत् विकार,, शूल, अतिसार, संग्रहणी आदि विकार नष्ट हो हैं।

(इ) बालकों के अपस्मार पर - अकरकरा को डोरे बांधकर गले में लटका देना चाहिए । अथवा इक- काले कुत्ते के बाल और अकरकरा दोनों को बालक के गले में बाँध देने से उसकी हड्डियों में चेतन्यता तथा आमाशय के रोग और ज्वर दूर होते हैं।

(ई) जिह्वा जाड्य - बालकों की जीभ किसी, कारण- वश मोटी हो जाने से उच्चारण ठीक नहीं होता। ऐसी अवस्था में इसका २-२ रत्ती चूर्ण शहद के साथ मिला- करें दिन में २याँ ३ बार जिह्वा पर लेप करनें से तुतला- पन, मुख का सूखना, दाँत और दाढ़ का दर्द और गले की सूजन में भी लाभ होता है। मनुष्य की जिह्वा सुन्न हो जाने पर भी इसका लेप, काथ, आदि का किसी रूप से. प्रयोग लाभप्रद है ।

(उ) जिह्वा विकार एवं मुखमाधुर्य पर - इसे मुख में रखकर धीरे धीरे चबावें और लार टपकाते जावें अथर्वा शीतल जल में इसे घिसकर जिह्वा पर लेप करें और लार को बाहर बहने दें। इस प्रकार दिन में २ या ३ वार करने से जिह्वा की शुद्धि होकर पूर्ण लाभ होता है ।

(ऊ) मुख दुर्गन्धनाशार्थ - अकरकरा का महीन चूर्ण कर २ से ४ रत्ती तक, संमभाग मिश्री का चूर्ण मिलाकर दिन में ४ या ५ बार मुख में डालने से मुख की दुर्गन्ध दूर हो जाती हैं।

ज्वरे, कफ, प्रकोप, प्रतिश्याय, कास श्वास पर -

(अ) इसका महीन चूर्ण जैतून के तेल (Olive oil)में मिला और गरम कर, ज्वर चढ़ने के पूर्व समस्त शरीर में मालिश करने से ज्वर एवं सर्दी का लगना पूर होता है। चढ़े हुए ज्वर में इसकी मालिश करने से पसीना आकर ज्वर छूट जाता है। इसकी मालिश से संधियों की वेदना आदि शिकायतें दूर हो जाती हैं।

(आ) अकरकरादि काथ - अकराकरा के समभाग चिरायता, गिलोय, कटुकी, करंज की छाल और नीम की छाल लेकर जौकुट चूर्ण बनावें । १ तोला चूर्ण में २० तोला जल मिला चतुर्थांश काथ सिद्ध करें ।

मात्रा- बालकों को १ चम्मच से २ चम्मच तक, शहद मिला सेवन करावें । बड़ों को १॥ तोले से २।। तोले तक । इस काथ का मलेरिया (शीतज्वर), वातश्लेष्म ज्वर (इन्फ्ल्युएञ्जा), विषम ज्वर, प्रतिश्याय और कास पर अचूक प्रभाव पड़ता है। इसका प्रयोग ज्वर प्रतिकारार्थ तथा ज्वर शमनार्थ किया जाता है ।

(इ) सन्निपात ज्वर में- संज्ञानाश (बेहोशी) या शरीर की शिथिलता का आभास होते ही अकरकरा का फाँट बनाकर देने से हड्डियों से मुख्यतः हृदय में स्फूर्ति पैदा हो, शिथिलता और बेहोशी नहीं होने पाती। यदि तन्द्रा और जड़ता की विशेषता हो तो इसके क्वाथ में अदरख का रस या सोंठ का चूर्ण और थोड़ा सा कुलिंजन (सुगन्ध बच) का चूर्ण मिलाकर सेवन करावें ।

(ई) कफ प्रकोप या सर्दी की बाधा जोर पर हो - तो इसके अवलेह में शहद मिला सेवन कराने से सर्दी के विकार, छाती का दर्द, कफ की पुरानी खांसी दूर होती है तथा देह की काँति बढ़ती है। अथवा इसका एक छोटा टुकड़ा या चूर्ण ४ रत्ती तक पान के बीड़े में रखकर खिलावें तथा इसके गरम काढ़े को सिर पर लेप करें और उसे तालू पर मलें । इससे नजला में भी लाभ होता है ।

(उ) खाँसी की विशेषता हो तो इसके महीन चूर्ण ४ रत्ती में समभाग मिश्री मिला उष्णोदक दिन में २ या ३ बार सेवन करावें । अथवा इसका चूर्ण १ तोला और मुलैठी चूर्ण १ तोला दोनों को एकत्र कर शहद के साथ खरल कर २-२ माशे की गोलियां बना रक्खें । खांसी के दौरे के समय दिन या रात में इन गोलियों को चूसने से खाँसी बन्द हो जाती है। कुछ दिन इसी प्रकार सेवन करते रहने से सभी प्रकार की वातज और कफज कास नष्ट हो जाती है। अथवा इसके केवल क्वाथ के सेवन से भी अपूर्व लाभ होता है। अकरकरा का पञ्चाङ्ग (अभाव में केवल मूल) ५ तोले, जो-कुट कर, ४० तोले जल में क्वाथ विधि से पकावें । चतुर्थांश शेष रहने पर छानकर शीशी में भर कर रक्हों । मात्रा - बड़ों को २।। तीले तक, बच्चों को चाय के चम्मच से १ या २ चम्मच तक दें ।

अनुपान में- क्वाथ की मात्रा से चौथाई शहद मिला, प्रातः सायं या दौरे के समय सेवन कराने से श्वास सहित कास भी दूर हो जाता है।

इसके महीन चूर्ण को सुघाने से नाक बंध जाने से पैदा हुआ श्वासावरोध दूर हो जाता है।

(ऊ) कफ या वात के कारण सिर दर्द हो तो इसके महीन चूर्ण ४ रती को बादाम के हलवे के साथ प्रातः शाम सेवन करने से निरंतर एक समान बना रहने वाला सर दर्द दूर हो जाता है ऐसी दशा में इसके चूर्ण की नस्य भी साथ ही साथ देनी चाहिए।

(४) दांत और दाढ़ों के रोग पर-

(अ)- यदि बादी के कारण दाढ़ या मसूड़े फूल गए हो और दर्द से बेचैनी हो तो नया अकरकरा लाकर उसके छोटे-छोटे टुकड़े कर दो चार टुकड़े मुंह में दर्द के स्थान पर दबावे और पानी थूकते रहे इससे दांत पीड़ा बहुत जल्दी दूर होती है।

अथवा इसे सिरके में भिगोकर दातों के नीचे दबने से या इसको कटसरैया के पत्तों के साथ कूटकर दातों तले दबाने से या इसके साथ काली मिर्च, पीपल, छोटी इलायची के दाने और माजूफल समभाग लेकर एकत्र कर महीन चूर्ण में से दो रत्ती चूर्ण दांत और दाढ़ में मलने से तथा दांत की खोखल में भर देने से दंत पीड़ा शांत हो जाती है।

अथवा इसके कुनकुने क्वाथ का कवल (गण्डूष) धारण करने से दांत और मसूड़ों की पीड़ा शांत होकर मुख और कंठ का प्रदाह, गल ग्रंथिशोथ, स्वरभंग आदि रोग भी दूर हो जाते हैं।

अथवा इसके महीन चूर्ण के साथ पिपरमेंट और कोकीन समभाग प्रत्येक एक-एक माशा, अफीम चार माशा से तथा गोंद बबुल 6 माशे से लेकर सबको एकत्र कर उसमें थोड़ा जल मिला कर सीसी में भर लें, इसमें रुई की फुरेरी भिगोकर मसूड़े पर लगाने से तत्काल दंत पीड़ा शांत हो जाती है।

(आ)दंत कृमि पर- दांतों में कीड़े लगकर वहां से मसूड़े खोखले हो गए हो तो उन छेदों में इसका महीन चूर्ण भर देने से कृमि नष्ट हो जाती है।

दांत क्रमि जन्य पीड़ा (कीड़े खाए हुए दांत की पीड़ा) तत्काल दूर करने के लिए इसका महीन चूर्ण नौसादर और अफीम एक-एक रत्ती तथा कर्पूर अर्ध रत्ती एकत्र कर मिला ले और कीड़े खाए हुए गड्ढे में भर दे ।

अथवा इसके चूर्ण को सिरके के साथ पकावे जब वह खमीर के सदृश हो जाए तो इस कीड़े खाए हुए दातों के ऊपर रखने से सब कीड़े झरके गिर पड़ते हैं अथवा इसका टिंचर भी उत्तम लाभकारी है।

इ) दन्तरोगहर गण्डूष और मंजन -

अकरकरा, अनार के फूल, फिटकरी, नागरमोथा, वायविडङ्ग, जटामांसी, मांजूफल एक-एक माशा तथा खुरासानी अजवाइन 3 माशे और पुनः अकरकरा ३ माशे (अकरकरा चूर्ण कुल ४ माशे लेकर आधा सेर जल में क्वाथ करें। तृतीयांश शेष रहने पर, इसके सुखोष्ण जल से कुल्ले करने से दन्त पीड़ा, दाँतों का हिलना, मसूड़ों से रक्तस्त्राव होना आदि विकार शीघ्र ही दूर हो जाते हैं।

मंजन- इसके दो भाग महीन चूर्ण के साथ १-१ भाग अनार का फूल, नागरमोथा, बच, माजूफल, खदिर, कत्था, सुहागा, सेलखड़ी, छोटी इलायची का महीन चूर्ण तथा अर्ध-अर्ध भाग फिटकरी, श्वेत मिर्च, समुद्रफेन, शक्ति भस्म, रूमामस्तङ्गी, कपूर, सबका महीन चूर्ण एकत्र कर रक्खें। नित्य प्रातः इसका मंजन कर गर्म जल से कुल्ला करने से सब प्रकार के दन्त रोग नष्ट होते हैं। पान खाने से परहेज रखना चाहिए ।

अथवा -

इसका महीन चूर्ण २ तोला, त्रिफला १ तोला, मुलैठी ६ माशे, सोंठ ३ माशे, लौंग १ माशे, इलायची ६ रत्ती, कपूर ३ रत्ती, तुत्थ भस्म १ रत्ती और पिपरमेंट मत्व ६ चावल, लेकर सबके महीन चूर्ण का मिश्रण बना रक्खें । प्रातः भोजन के पूर्व, तथा भोजन के बाद सोते समय इसका मंजन करने से दन्तकृमि, दन्तपीड़ा, दन्तहर्ष, दत्तवेष्ट, दन्तपूय पायोरिया, दन्त पुप्पुट, मुंह के छाले आदि दूर होकर दाँत मजबूत और स्वच्छ रहते हैं ।

अपस्मार पर-

(अ) अपस्मार या मृगी के रोगी को फिट आवे तब इसके महीन चूर्ण को उसकी नाक के अन्दर फूंकना चाहिए । यदि रोगी को छींक आ जाय तो समझना होगा कि रोग साध्य हैं। और इसके चूर्ण को मस्तङ्गी या अन्य कसैली वस्तुओं के साथ मिलाकर तथा उसमें शहद मिलाकर दिन में ३ बार चटावें, तो दूषित दोषों से प्रकट हुआ अपस्मार दूर हो जाता है। साथ ही साथ इसके चूर्ण का नस्य भी देते रहें ।

इसके चूर्ण को शङ्खपुष्पी के चूर्ण के साथ भी देने से लाभ होता है।

अथवा -

(आ) इसका चूर्ण २ भाग, तथा चित्रक, आंवला, अजवायन, हरड़ और सेंधानमक १--१ भाग, और सोंठ २ भाग, इनका महीन चूर्ण कर बिजौरा नीबू के रस की भावना देकर सुरक्षित रक्खें । प्रातः सायं १ से ३ माशे चूर्ण शहद के साथ सेवन करने से मृगी, पीनस, उन्माद, श्वास, मंदाग्नि, अरुचि आदि विकार दूर होते हैं।

बालकों के अपस्मार पर - इसका महीन चूर्ण (मात्रा १ से २ रत्ती) शहद के साथ प्रातः सायं चटावें ।

नस्य प्रयोग- इसका चूर्ण तथा काली मिर्च और कुटकी का चूर्ण प्रत्येक १-१ तोला, इन्द्रायण की जड़ और स्याह जीरा ६-६ माशे तथा नौसादर ६ माशे, इन सबका महीन चूर्ण एकत्र खरल कर शीशी में भर कर रक्खें । प्रातः सायं इसकी नस्य देने से ये संचित दोष दूर होकर मृगी नष्ट हो जाती है।

वात रोगों पर -

(अ) अकरकरादि गुग्गुल - अकरकरा का महीन चूर्ण ८ तोले, असगन्ध और सोंठ चूर्ण २॥--२॥ तोले, शुद्ध गुग्गुल १० तोला तथा एरण्ड मूल का चतुर्थांश क्वाथ १ सेर लेकर प्रथम क्वाथ में गुग्गुल मिलाकर कलईदार पीतल की कढ़ाई में पकावें । जब शहद जैसो गाढ़ा हो जाय तब उसमें शेष औषधियों का महीन 'चूर्ण धीरे धीरे बुरकते हुए करछली से चलाते जांय, जब सब मिलकर अवलेह के समान हो जाय तो थोड़ा घृत मिलाकर सबको लोह खरल में डाल खूब कुटाई करें और २-२ माशे की गोलियाँ बनालें । दिन में २ या ३ बार १-१ गोली एरण्ड मूल क्वाथ के साथ अथवा सुखोष्ण दुग्ध के साथ सेवन करने से खंजता, पंगुता, कुब्जता, जिह्वास्तम्भ, मन्यास्तम्भ पक्षाघात, सन्धिवात, कम्पवात, आदि वात रोग दूर हो जाते हैं। हिस्टेरिया तथा हृदय की अत्यधिक धड़कन पर भी यह लाभदायक है।

(आ) गृध्रसी (Sciatica-सियाटिका) पर इसके महीन चूर्ण को अखरोट के तैल में मिला मालिश करने से लाभ होता है।

शरीर में सुन्नत या झुनझुनाहट हो तो इसे लौंग के साथ मालिश करें।

अथवा -

इसके चूर्ण को जैतून के तेल के साथ पीसकर मर्दन करने से सुन्नवात, ढीलापन, तथा मस्तिष्क, सन्धि, मुख और छाती की वात या स्नायु सम्बन्धी पीड़ा दूर हो जाती है ।

(इ) वात प्रकोप के कारण सिर में चक्कर आते हों। विकृत निद्रा या अतिनिद्रा हो तो इसे केवल मुख में रख- कर चूसते रहने से ही लाभ होता है।

सम्पूर्ण शरीर में यदि पीड़ा हो तो इसके चूर्ण को पीपलामूल के क्वाथ के साथ सेवन कराने से शीघ्र ही लाभ होता है ।

(७) रक्तदोष, उपदंश और श्वेत कुष्ठ पर-

(अ) इसका चूर्ण और आक की जड़ का चूर्ण १-१ भाग काली मिर्च २ भाग और मिश्री ४ भाग। इन चारों का महीन चूर्ण एकत्र खरल कर रक्खें । प्रातः सायं ताजे जल के साथ इसकी मात्रा २ से ४ माशे तक सेवन कराने से कण्डु, उपदंश तथा अन्यान्य रक्तदोषों पर उत्तम लाभ होता है ।

(आ) उपदंश या फिरंग रोग उग्ररूप में हो तो - इसका चूर्ण १ तोला, खदिर चूर्ण (या श्वेत असली कत्त्था) और शुद्ध पारा ६ माशे, इन तीनों को खरल में एकत्र कर १॥ तोला शहद के साथ खूब घोटना चाहिए । और कुल ७ गोलियाँ बना लेवें । नित्य प्रातः १ गोली जल के साथ सेवन करने से फिरङ्ग रोग (सिफलिस) नष्ट होता है। पथ्य में दूध, भात खावें, अम्ल (खटाई) और लवण त्याग दें ।

(इ) श्वेत कुष्ठ पर- अकरकरा चूर्ण १ तोला के चित्रक, पीपल और धतूरे के बीज ६-६ माशे तथा त्रिफला, एलुआ, बाबची और मेंहंदी के बीज प्रत्येक १ तोला तथा शुद्ध संख्या १ माशा, सबके महीन चूर्ण को अदरक के रस के साथ खरल कर मूंग जैसी गोलियाँ बना कर छाया में शुष्क कर रखें, प्रतिदिन भोजनोत्तर एक गोली जल के साथ सेवन करने से श्वेत कुष्ट में शीघ्र आराम मिलता है।

(अ) मंदाग्नि यकृत विकार आदि उदर व्याधि पर-

(अ) इसका चूर्ण और छोटा पीपल का चूर्ण को समभाग एकत्र कर रखे। मात्रा- बड़ों को १ माशा से २ माशा तक और बच्चो को १ रत्ती से ४ रत्ती तक जल के साथ दिन मे दो या तीन बार प्रति ३ घण्टे के अंतर मे सेवन कराने से यकृत विकार, मंदाग्नि, अम्लपित्त, उदर व्याधि नष्ट होते है।

अथवा

इसके चूर्ण को सौंठ के साथ सेवन कराने से मन्दाग्नि, अफरा आदि दूर होते है। जलोदर पर भी यह लाभदायक है।

उक्त नम्बर ५ अपस्मार प्रकरण में प्रयोग (आ) का चूर्ण विशेष लाभकारी है। इसे अमृत प्रभा चूर्ण शास्त्रो में कहा गया है।

ह्रदय विकारों पर-

इसका चूर्ण और अर्जुन वृक्ष की छाल का चूर्ण को समभाग का मिश्रण बना प्रातः सायं २-२ माशे सुखोष्ण दुग्ध के साथ सेवन कराने से ह्रदय की समस्या, पीड़ा तथा घबराहट, रक्त का दबाब आदि दूर होते है, हृदय की कमजोरी पर, इसे कुलिंजन के साथ समभाग मिला क्वाथ बना पिलाने से लाभ होता है।

मासिक धर्म की विकृति और मूत्रावरोध-

(अ) इसके चूर्ण की मात्रा ४ रत्ती तक काले निशोथ के क्वाथ के साथ प्रातः सायं सेवन कराने से मासिक धर्म की विकृति तथा उसकी रूकावट दूर हो जाती है।

या केवल इसके चूर्ण का फाण्ट विधि से प्रयोग करने से वात कफ के कारण से होने वाली मासिक धर्म की समस्या दूर हो जाती है।

(आ) मूत्रावरोध- इसके चूर्ण की मात्रा ४ रत्ती को दुगनी मिश्री के चूर्ण के साथ मिला त्रिफला क्वाथ के साथ पिलाने से लाभ होता है।

अश्मरी पर-

आकल्लकादि क्वाथ-अकरकरा, गोखरू, तुलसी पत्र, पाषाण भेद, एरण्ड मूल, पीपल, मुलैठी, कांस की जड़, निर्गुण्डी (सम्भालू) के पत्र लौंग और सोंठ समभाग का स्वाध कर उसमें छोटी इलायची का थोड़ा सा चूर्ण सिखा सेवन करने से ७ दिन में कैसी भी पीड़ाकारक पथरी हो निकल जाती है।

सन्तान निग्रहार्थ-

इसके चूर्ण के साथ अर्थ भाग पारा गंधक की कज्जली, लोंग, कपूर और सुहागा का महीन चूर्ण मिला कर समागम के पूर्व शिश्न (अग्रभाग को छोडकर) पर शहद के साथ लेप करने से गर्भ स्थिति नहीं होने पाती।

सिन्दूर के विष पर-

इसे बच के साथ जल में पीसकर दिन में ३ बार पिलाते हैं।

आग से रक्षार्थ -

इसे नौसादर के साथ पीस कर तालू और मुख में लगाने से (खूब रगड़ने से) मुख में ऐसी शून्यता हो जाती है कि मुख में जलते हुये आग के अङ्गारे भी भर लिये जाय तो मुख नहीं जलता। कहा जाता है कि बाजी- गर लोग इसी प्रयोग द्वारा अपना अभ्दुत खेल दिखलाया करते हैं।